यादों के शंकर, गौरी शंकर


मुझे याद है कि जब मैं बहुत छोटा था और गांव में रहता था। उस दौरान श्रावण मास के सोमवार के दिन या अन्य किसी शंकर भगवान के पारंपरिक त्योहारों पर हम लोग गौरी शंकर मंदिर जाया करते थे। गौरी शंकर मंदिर जाने का दो फायदा होता था, एक फायदा तो यह था कि हम गौरी शंकर जी को जल चढ़ाएंगे और उससे वह प्रसन्न हो जाएंगे और दूसरा फायदा बड़ा फायदा पेट से जुड़ा रहता था। दूसरा फायदा हमको यह लगता था कि जब हम गौरीशंकर जाएंगे तो वहां पर जलेबी खाएंगे और गुड़ वाले ख़ुरमे खाएंगे। मतलब गौरीशंकर जाने से हमेशा फायदा रहता था। गौरी शंकर मंदिर जाने के 1 दिन पहले यानी रविवार की शाम को ही हमारी आंटी, भाभी, बड़ी-बहन  सब मिलकर बेल के पत्ते और फूल, पत्तियों को इकट्ठा कर लेती थीं। अब मामला यह होता था कि सुबह उठाएगा कौन?  उस समय मोबाइल का प्रचलन नहीं था। लेकिन ग्रामीण वासी सुबह जल्दी नींद से जाग जाते हैं लिहाजा घर के बड़ों को यह जिम्मेदारी दी जाती है कि वह सुबह उठते ही हमको उठा देंगे, यहां पर मामला फिट बैठ जाता है क्योंकि आंटी और भाभी सुबह 4:00 बजे ही उठ जाया करती थीं।
अब आती है हम बच्चों की बारी, हम लोगों को शाम से ही बताया जाता था कि खाना खाकर जल्दी से सो जाना नहीं तो सुबह उठ नहीं पाओगे और देर होगी तो तुम को छोड़ दिया जाएगा, तुम घर पर रहोगे घर पर रहने का सुनते ही तो मानो काली घटा छा जाती थी आंखों के सामने। बरहाल सुबह गौरीशंकर की यात्रा का ख्वाब लिए हम आंखें मुदते ही सो जाते है। और तभी कानों में एक आवाज गूंजती है कि जल्दी उठो नहीं तो तुम यहीं रह जाओगे। इतना सुनते ही चिंगारी की रफ्तार से उठ खड़े होते हैं, लेकिन हमारी आंखें अभी भी खुलने का नाम नहीं लेती हैं लेकिन  मन की लालसा जो घूमने और  जलेबी बतासे में आखरी सांसे गिन रहा होता है वो मुझे वापस चेतना अवस्था में ला ही देता है।और दौड़ के  मंजन-ब्रश, नहाना, नित्यकर्म  करके  तैयार होकर  कहा जाता था, अब तुम लोग देर कर रही हो अभी हम थोड़ा सा और सो लेते  तो छोड़ कर चली जाती। 
बरहाल गौरी-शंकर  चप्पल खोने के डर के कारण  सब लोग चप्पल घर पर रखकर ही जाते थे यानी भक्ति अपनी जगह और चप्पल अपनी जगह खेतों के रास्ते जाने से मंदिर की दूरी आधी हो जाती थी। इसलिए  यह निर्णय होता है कि हम लोग मेड ,मेड ( गांव के खेतों की पगडंडियों को मेड कहा जाता है )चलेंगे। तो नंगे पैर खेतों की पगडंडियों पर चींटी वाली सेना एक के पीछे एक चल पड़ती है और इस तरीके से हम लोग गौरी शंकर मंदिर पहुंच जाते हैं। कुछ देर के बाद, अब सबको पहले यह बताया गया कि कोई गायब होगा तो जो माली हैं जो फूल देते हैं वहीं आकर खड़ा होगा और कोई किसी को खोजने नहीं जाएगा। 
मामला पहले से ही बता दिया गया था तो एक के बाद एक गौरी शंकर महादेव को जल डालने के बाद सब लोग माली के यहां इकट्ठे हो जाते थे और उसके बाद यह पूछा जाता है तुम क्या खाओगे और तुम क्या खाओगे। हालांकि खाते सब एक ही चीज थे वह है जलेबी बहरहाल सब जलेबी खा कर वापस घर को लौटने लगते हैं।

यह कहानी आज मैं इसलिए आपको बता रहा हूं क्योंकि आज तकरीबन बहुत लंबे वक्त के बाद या यह कह ले कि मुझे याद नहीं है कि मैं लास्ट टाइम कब गौरी शंकर मंदिर गया था। यह बहुत ही पुरानी बात है। बीते दिन 1 साल के बाद में अपने गांव गया और आज सुबह मुझे वापस अपने कर्मभूमि लौटनी थी, तो मैं सुबह जल्दी उठ गया था और सबसे बातचीत कर रहा था कि किसी को यह न लगे कि रात में आया और सुबह जा रहा है क्या करने आया था। तो प्लान यह बना कि भाई साहब ने कहा कि 'आशु तुम काहे नहीं जाते हो गौरी शंकर, सोमवार है आए हो और चले जाओ', तो मैं कहता हूं हां-हां क्यों नहीं!मैं तो नहा भी चुका हूं अच्छा मौका है मैं चलूंगा। तब तक बड़ी बहन जी कहती हैं कि मैं भी चल रही हूं तुम्हारे साथ, मैंने कहा ठीक है और इस तरीके से हम दोनों लोग मोटरसाइकिल लेकर निकल पड़ते हैं। गांव की सड़क जो होती है वह गांव वालों की पर्सनल प्रॉपर्टी होती है। उस पर वह अपना पूरा अधिकार समझते हैं, मतलब की ससुराल में गिफ्ट टाइप का। तो आगे गांव के लोग धान के पुआल को सड़क पर बिछाए हुए थे रेड कारपेट की तरह और मैं तो उसको देखते ही डर गया की गाड़ी स्लिप ना हो जाए और मैं गिर ना जाऊं और बहन जी भी चोट ना खा जाएं। आग लगे ऐसी सोच को। क्योंकि पुआल पूरी सड़क पर फैला हुआ था तो मुझे सामने आने वाला ब्रेकर दिखाई नहीं दिया  और उस पर गाड़ी उछली और बहन जी का बैलेंस गड़बड़ हुआ। उन को चोट भी आ गई। उनकी चूड़ी उनके हाथ में टूटकर लग गई और खून निकलने लगा और अपनी इस नादानी से मैं बड़ा शर्मिंदा हो गया कि मैं धीरे धीरे चल रहा था उसके बाद भी गिर गया, मतलब मेरी सतर्कता कमजोर थी। बरहाल बहन जी तुरंत उठाई और उठते ही उन्होंने कहा कि 'अरे कोई बात नहीं आशु वह हमें पता है कि सड़क पर इस तरीके से बना है और दिखा नहीं होगा'। देखिए भाई बहन का रिश्ता बहुत अनमोल होता है बहुत शानदार, शायद ही वैसा रिश्ता कोई दूसरा हो, मां के रिश्ते के बाद भाई बहन का रिश्ता ही सबसे अद्भुत है।ऐसा मुझे लगता है। मैं भी मुस्कुराया और कहा चलो ठीक है 'पहले पट्टी कराते हैं फिर मंदिर जाएंगे', तो बहन जी कहती हैं 'नहीं-नहीं कुछ नहीं,चलो मंदिर बाद में पट्टी होगी'। लेकिन मैंने कहा नहीं पहले पट्टी होगी फिर मंदिर जाएंगे बरहाल मेरे बार बार कहने पर बहन जी सहमत हो गईं और कहीं ठीक है चलो। फिर जंगल में सुई की तरह हम लोगों ने एक क्लीनिक खोज निकाला और जब आवाज लगाया गया एक महिला निकली जो अपने केशों में मेहंदी लगाई हुई थी, आई एस आई मार्कआ हेलमेट की तरह। 
तो मुझे लगता है कि यह कोई काम वाली होगी और अभी कहेगी कि डॉक्टर साहब आए नहीं हैं लेकिन महादेव वह तो डॉक्टर निकली और उसने कहा कहां लगा है बताइए। हमने अपना रुमाल जो बहन के हाथ में बांध दिया था, उसको खोला और दिखाया तब खून बंद हो चुका था। लेकिन जख्म काफी था तो उसने एक रूम पर थोड़ी सी स्पीड लगाकर उसे उनके जख्म के पास में रख दिया, तो मैं सोचने लगा कि इस रुई को उसने वहां क्यों रख दिया जख्म तो कहीं और लगा है। अगर यह स्पीड था तो इसको इससे साफ करके फेंक देना चाहिए था लेकिन वह तो वहां पर रख कर चली गई, तब तक वह कहती हैं 'पोछ दिया आपने' तब हमको समझ में आता है कि इनको सिर्फ पैसा देना है बाकी काम खुद कर लो। मौके की नजाकत को देखते हुए मैं तुरंत रुई को लेता हूं और जख्म को साफ करके बोलता हूं कि 'हां हो गया',लेकिन आप टिटबैक की सुई लगा दीजिए। तो डॉक्टर कहती हैं कि 'उसकी कोई जरूरत नहीं है'। तो मैं कहता हूं कि 'आपके पास है कि नहीं', तो वह कहती है 'अरे जरूरत ही नहीं है' हम कहते हैं अच्छा ठीक है रहने दीजिए, फिर पट्टी कर दीजिए। तो फिर वह महिला एक डिस्पोजल में कुछ दवाओं को ले रही होती है तब मुझे लगा कि शायद टिटबैक है इसके पास और यह लगाएगी, लेकिन मेरे दिमाग में यह आता है कि टिटबैक तो हल्का दूधिया रंग का होता है और यह तो पीले रंग का है! असली करतब तो अब देखने को मिलता है जब डॉक्टर अपने डिस्पोजल की दवा को एक रुई पर स्प्रे करती हैं और वह रुई लाके बहन के जख्मों पर सीधा रख देती है, तो मैं कहता हूं कि सीधा रुई वहां पर रख देंगी तो सकीन में घुस जाएगा और बहुत प्रॉब्लम करता है पट्टी रखकर फिर इसको रखिए, पहली बार वह डॉक्टर मेरा बात मान गई और कहा 'हां ठीक है'। डॉक्टर ने पट्टी निकाला एक हाथ से ही पट्टी को खींचा, मैंने तुरंत कैची पर अपना हाथ लगाया और पट्टी को काट दिया *भाई साहब टाइमिंग देखिएगा मेरी* बरहाल पट्टी बन जाती है और हम सीधा गौरी शंकर मंदिर की ओर कूच करते हैं। मंदिर पहुंचता हूं तो देखता हूं कि कुछ नहीं बदला है वही पुरानी यादें हैं जो वर्षों पहले यादों के पन्नों में जुगनू बन कर घूम रहे थे, फिलहाल मोटरसाइकिल को साइड में लगा दिया गया और मुख्य कार्य की ओर ध्यान को केंद्रित किया गया, यानी कि अब गौरी शंकर जी को जलाभिषेक कराना है बहुत तेजी से माली जी के पास से दो लोटा लपक लेते हैं हम और सामने लगे हैंड पाइप पर कब्जा कर लेते हैं और दोनों लोटे में जल को समाहित करके, मैं माली बाबा के चौकी पर पहुंच जाता हूं और कहता हूं कि 'बाबा लाइए बेलपत्र और पूजा के सामान', उधर से बाबा भी तुरंत फटाफट कपूर-अगरबत्ती, बेलपत्र, चंदन सब दे देते हैं और हम सीधा मंदिर की ओर बढ़ते हैं। भीड़ नहीं थी मुझे याद है कि 20 से 25 लोगों की भीड़ गर्भ गृह से दरवाजे तक रही होगी। बरहाल किसी तरीके से कोरोना महोदय को दंडवत करते हुए मैं मंदिर के अंदर पहुंच जाता हूं और गौरी शंकर जी का दीदार हो जाता है दीदार के बाद पीछे के दरवाजे से मैं मंदिर के बाहर आता हूं और मंदिर के बाईं तरफ में कपूर और अगरबत्तीयों का जलता हुआ ढेर दिखाई पड़ता है मैं अपनी जेब में हाथ डालता हूं और माली बाबा के द्वारा दिया हुआ कपूर का पैकेट हाथ से बाहर निकलता हूं और कपूर को जलाकर महादेव का बंद आंखों से नमन करने लगता हूं तो मुझे लगता है कि गौरी शंकर जी मुस्कुराते हुए कह रहे हैं कि 'वेरी बिजी विदाउट वर्क हो बेटा और लिफ्ट नहीं दे रहे हो, चौधरी बन गए हो' और हम मन ही मन कहते हैं कि 'गुरु असली मामला तो पता है आपको अब हम क्या कहें बार-बार'। बरहाल थोड़ी बातचीत में ही मामला समाप्त हो जाता है और मैं वापस लोटे को माली बाबा के पास सुपुर्द करने के लिए चल पड़ता हूं। माली बाबा को लोटा दे कर, मैं वापस मंदिर की तरफ घूम कर एक बार फिर चक्कर लगाकर देखने का सोचा और मैं चला भी गया। दोबारा जब चक्कर लगा कर मैं लौट रहा था तो मुझे याद आया कि अरे हम लोग तो चंदन भी लगाते थे जब छोटे थे तो, तो तुरंत माली बाबा के पास में पहुंचा और कहा अरे चंदन लगाइए अब तो चंदन भूल गए लगाना माली बाबा कहते हैं कि हां-हां आइए-आइए और हमको चंदन लगा देते हैं। हालांकि हमने कहा था कि 'बहुत छोटा सा लगाइएगा', फैशन भी देखना था। भाई टीका लग जाने के बाद अब मुझे जलेबी की बहुत तेजी से याद आई। ऐसा लगा मानो जलेबी मुझे देखकर चिल्ला रही है कि आ गए मेरे करन-अर्जुन आ गए। मैं जलेबी की तरह दौड़ा और तभी मेरा मन बदल गया और मैं गुड वाले ख़ुरमे की तरफ मुड़ गया और मैंने उससे कहा कि 'भैया हई खुरमा केतने का देते बाटा'। जूते वाला Bata नहीं है यह गांव की  भाषा है। वह कहता है कि ₹25 का ढाई सौ ग्राम, हमने कहा दे दीजिए और इस तरीके से खुरमा पैक कराया गया और वापस अपनी मोटरसाइकिल की डिक्की में उसको बाकायदा पैक किया गया कि इसको घर ले जाया जाएगा और रात में भोजन के बाद इसके स्वाद पर  रिसर्च होगा। 
बरहाल अब यह था कि कुछ तो खा ही लिया जाए क्योंकि सुबह से कुछ खाया नहीं था और 9 के ऊपर हो गया था और सुबह जल्दी उठा भी था 6:30 बजे ही उठ गया था। आज तो गोल्ड मेडल का काम किया था। पिताजी की माने तो अगर सुबह खतर पटर की आवाज ना हो और शांति बनी रहे तो मैं सोता ही रह जाऊ दिन भर। बरहाल ऐसा मौका मिला नहीं है कभी इंतजार है, लेकिन अब हमारी निगाहें केले पर पड़ी और मुझे लगा ये गांव है और यहां पर केला बहुत सस्ता होगा क्योंकि केले की खेती उधर बहुत होती है हमने 10का नोट निकाला और केले वाले भैया को थमा दिया और कहा कि इतने का दे दीजिए जितना मिले। उन्होंने चार केले मेरे हाथों में थमा दिए। चार केला खाकर थोड़ा दम आया और तब तक बहन जी भी अपना कुछ खरीद रही थी, उनकी भी खरीदारी कंप्लीट हो गई थी और हम लोग वापस वतन की ओर लौट पड़े। घर आए और चाय पानी हुआ और मैंने अपनी कर्मभूमि की ओर निकलने का ऐलान किया और चला आया।

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