देश के किसान नहीं, देश के शैतान हैं उपद्रवी

कल का दिन बेहद दुखदाई दिन रहा। बहुत ही कष्टकारी दिन रहा।हृदय को गहराइयों तक चीर देने वाली घटनाओं ने मन को झकझोर कर रख दिया है। अभी तक के इतिहास में कभी भी इस तरह की कोई घटना नहीं हुई थी। घटनाएं हुई थी जो निंदनीय हैं, लेकिन इस स्तर की घटना को निंदनीय कहना भी निंदनीय होगा। पूरा देश , देश के हर एक गांव , हर एक शहर ,गली-मोहल्ले और हर उस आदमी के लिए आज का दिन बहुत महत्वपूर्ण होता है,जो इस देश की धरा पर रहता है।
     कल देश का स्वर्णिम दिवस था। कल गणतंत्र दिवस था। पर सोचिए उसी धरा पर रहने वाले कुछ लोग, जिन्हें किसान कहा जा रहा है। जो इस देश के जनक हैं,जो इस देश के अन्नदाता हैं। तो सोचिए! जो देश के लिए इतने महत्त्वपूर्ण हैं! तो उनके लिए देश का यह दिन कितना महान दिन होना चाहिए। अरे भाई! हम से और आप से ज्यादा बड़ा दिन होना चाहिए ना उनका! अरे वो इस देश के जनक है,अन्नदाता है। तो सोचिये जब देश और देश के जनक का रिश्ता  एक दूसरे का पूरक है और इसमें कोई संदेह भी नहीं होना चाहिए। हमको और आपको अगर वह इस देश के किसान है तो। लेकिन ऐसे कैसे मान लिया जाए कि यह देश के किसान हैं? दुनिया जानती है कोई अपने हाथ से अपने पैर पर कुल्हाड़ी नहीं मारता है। कोई भी अपने माथे पर अपने ही हाथ से कालिख पोतने पर भी अपना चेहरा सुंदर नही बता सकता। इस सब की क्रोनोलॉजी समझिए अब आप। सोचिए और विचार करिए कि क्या यह संभव है?  यह किसान है? 
 हालांकि जो भी थे, अभी तक देश का एक बड़ा हिस्सा इनके आंदोलन को लेकर सरकार से खुश नहीं था। मैं खुद सरकार के इस रवैया से खुश नहीं था। यह जो भी थे मानवता और सरकार की जिम्मेदारियों को देखते हुए इनकी बातों को सुनना चाहिए था किसी भी हद पर जाकर। उस बड़े हिस्से का सरकार पर दबाव भी था और वह बड़ा हिस्सा सरकार पर उस दबाव को बराबर बनाए हुई थी।और इनकी बातों को बार-बार सुनने का दबाव भी बना रही थी।लगभग देश की अधिकतम आबादी के लोग किसान के समर्थन में ही थे। हालांकि उस बड़े हिस्से के लोग खुलकर सड़कों पर उतर कर सरकार को अपना संदेश तो नहीं दे रहे थे, लेकिन मौन रहकर अंदर ही अंदर अपनी नाराजगी का संदेश सरकार तक खूब पहुंचा रहे थे और इसका पूरा असर भी था। सब कुछ शांतिपूर्ण तरीके से चल रहा था। पर कुछ जिहादियों ने देश की छवि को धूमिल करने के लिए ट्रैक्टर रैली की योजना बनाई और तारीख भी चुनी। वह भी कोई ऐसी वैसी तारीख नहीं, देश और हर देशवासियों के लिए सबसे महत्वपूर्ण दिन वाली तारीख 26 जनवरी की। और भी कोई तारीख हो सकती थी। अरे आगे पीछे हो सकता था। भाई देश के जनक की बात थी लेकिन देश के जनक को अपने ही हाथों से अपने ही मुंह पर कालिख पोतने की लालसा इतनी तीव्र थी कि इनको कोई और दिन ही नहीं मिला। अपने आप को देश का किसान कहने वालों ने कल का ही दिन चुना था। 26 जनवरी का,जब किसी भी देश का गणतंत्र दिवस होता है, तो उस देश की हर खबरों पर पूरे विश्व की निगाहें टिकी होती हैं। अरे भाई! होनी भी चाहिए, यह दिन होता है अपनी क्षमताओं को पूरे विश्व के सामने रखने का और बताने का, कि हम भी हैं। हमारी भी गिनती करो। ऐसे में 26 जनवरी के दिन को देश के जनक ने, देश के अन्नदाता ने सुनिश्चित किया कलंकित करने के लिए । अब सरकार करे तो क्या करे? सरकार ने इनकी यह भी बात सशर्त(शांतिपूर्ण) तरीके से करने के लिए मंजूर कर दी। पर खेल तो कुछ और था। खिचड़ी कुछ और पक रही थी। और हुआ भी वही। पूरी प्लानिंग हो गई और उसको साकार भी किया गया।देश के जनक कहे जाने वाले आंदोलनकारी अपनी योजना में सफल भी हो गए। हालांकि पूरी तरीके से नहीं हो पाए हैं। लेकिन कहीं-कहीं बाजी मार ले गए। लेकिन अब मामला उल्टा हो गया है। अब तो जो देश की 80% 90% लोग इनके समर्थन में थे, अब इनके विरोध में आ गए हैं। अब बेटा यह फंस गए हैं कि अब यह करें तो क्या करें "ना निगल पा रहे है और ना उगल पा रहे हैं"। गुरु मामला बहुत बुरा फंस गया है। वो कहते हैं ना कि "बलम मांगे जाओ और भतार मर जाए" अभी मामला कुछ ऐसा ही हो गया है। उस अस्सी नब्बे परसेंट के लोगों के सामने अब यह नंगे हो गए हैं। अब इनके समझ में नहीं आ रहा है। कि करना क्या है? और देश की वह राजनीतिक पार्टियां क्या करेगी? जो इनके समर्थन में थीं। अब वह भी फस गई हैं अब करे तो क्या करें। और हमारे वह देश भक्त दोस्त लोग भी फंस गए हैं कि अब पोस्ट पर लिखे तो क्या लिखें भाई देश के विरोध में तो लिख नहीं सकते हैं। तो अब वह लिखे क्या?  कुल मिलाकर परिस्थिति ऐसी बन गई जैसे खीरे की आखरी में खाई गयी ढेंपी तीती हो गई है और उसको मुंह में भी ले लिए हैं अब उसको उगले कैसे! सामने देश है और देश की जनता है___✍🏻

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